Skip to main content

Posts

Showing posts from August, 2008
हूं राणी तूं राणी कूण घालै चूले मैं पाणी हूं- मैं राणी- रानी कूण- कौन घालै- डाले चलै- चूल्‍हा पाणी- पानी एक रानी दूसरी से कहती है मैं भी रानी हूं और तूं भी रानी है तो चूल्‍हे में भात बनाने के लिए कौन पानी डालेगा। यानि कोई नहीं डालेगा। इस तरह काम होगा ही नहीं। रानियों की बात: इस कहावत से मुझे एक बात याद आ गई। मेरे एक मामाजी हैं एक दिन उन्‍होंने मुझे मेहतरानी की इंसल्‍ट करते हुए देख लिया। तो उस समय तो कुछ नहीं बोले लेकिन बाद में मुझे बैठाकर समझाया कि एक राजा (गृहस्‍वामी) के चार रानियां होती है। महारानी, पटरानी, नौकरानी और मेहतरानी। चारों रानियों का अपना महत्‍व और काम है। कभी इनकी इंसल्‍ट नहीं करनी चाहिए। अब एक ऐसी कॉलोनी में रहता हूं जहां नगर परिषद के कर्मचारी सफाई नहीं करते। ऐसे में मेहतरानी की भूमिका अधिक प्रबल हो जाती है। इस कहावत में मेहतरानी तो नहीं है लेकिन एक ही राजा की दो रानियों के बारे में है सो यह बात याद आ गई सो ठेल दी। उम्‍मीद है कहावत की तरह लोकभाव की यह बात भी आपको पसंद आएगी।
ग्‍यानी काढ़े ग्‍यान सूं मूरख काढ़ रोय ग्‍यानी: ज्ञानी काढ़े: गुजारता है यानि ज्ञानवान मनुष्‍य ज्ञान के भरोसे मुश्किल दिनों को गुजारता है और मूरख व्‍यक्ति खराब दिनों में कुछ करने के बजाय केवल रोता रहता है। डॉ कुमारेन्‍द्र की कहावत से मुझे यह पुरानी कहावत याद आई। छोटा था तब मेरी मां मुझे रोता देखकर यह कहावत कहती थी। हालांकि बच्‍चे के रोने से इस कहावत का कोई लेन-देन नहीं है लेकिन चूंकि मुझे ज्ञानी बनने का भूत सवार था (जो आज भी है) इसलिए मैं रोते- रोते चुप हो जाता है और मां मुस्‍कुराकर अपना काम करने लगतीं।

माताजी के मटके

माताजी गढ़ में बैठी मटका करै बाणिए ने बेटो देर देख मटका: हंसी ठिठोली देर: देकर यह कहावत है लोक देवता भैरवजी और देवी मां के संवाद की। कहानी कुछ यूं है कि एक बार एक बणिए के कोई संतान नहीं होती। वह सभी देवी देवताओं से मनौतियां मांग लेता है। पत्‍थर-पत्‍थर पूजने वाला बणिया आखिर में हताश होकर जंगल के किनारे बने एक भैरूं जी के पास जाता है। वहां खड़ा एक आदमी बणिए को देखकर सोचता है कि बणिया फोकट में भैरूंजी से आशीर्वाद न ले ले। वह बणिए को सचेत करता है कि अगर मन्‍नत पूरी हुई तो यहां पाडा (भैंस का बच्‍चा) चढ़ाना पड़ेगा। बणिया संकल्‍प कर लेता है। भैरूंजी की कृपा होती है और सालभर के अन्‍दर ही बणिए के बेटा हो जाता है। बणिया जबान का पक्‍का होता है। वह भैंस का पाडा लेकर भैरूंजी के मंदिर पहुंच जाता है। जैसे ही पाडे की गर्दन काटने को उदयत होता है तो बणिए के हाथ कांप जाते हैं। कई देर के मानसिक द्वंद्व के बाद बणिया यह कहकर भैरूंजी के पत्‍थर के साथ डोरी से पाडे को बांध देता है कि तेरा पाडा तूं जाने। पाडा कई देर तक भैरूंजी से बंधा खड़ा रहता है। इसके बाद जोर लगाकर भैरूंजी को धरती से बाहर खींच लेता है। अब पाड

मारें लातई-लात

ग्यानी तें ग्यानी मिलें, करें ज्ञान की बात। गधा से गधा मिलें, मारें लातई-लात। ============================================ कहावत है की जब ज्ञानी व्यक्ति(बुद्धिमान) किसी दूसरे ज्ञानी व्यक्ति से मिलता है तो वे आपस में ज्ञान की बातें, भली बातें करते हैं और जब दो मूरख आपस में मिलते हैं तो उनमें विवाद होने के और कुछ नहीं होता है.

सलाम प्रणाम में क्या फर्क करिए

माँ....तुझे प्रणाम...माँ तुझे सलाम न सिर्फ प्रणाम न सिर्फ सलाम सच ६१ बरस की आज़ादी और हम कितने संवेदन हीन से हैं मै तुम् ये वो मिल कर "हम" न हो सके तो सच हम मादरे-वतन के वफादार बच्चे नहीं फिर भी कोशिश जारी रहे वन्दे मातरम

हाथ में खुरपी, बगल में चारा

ससुरार सुख की सार, जो रहे दिना दो-चार। जो रहे दिना दस-बारा, हाथ में खुरपी, बगल में चारा। ======================================== ससुरार = ससुराल दिना = दिन बारा = बारह ========================================== इस कहावत का तात्पर्य है कि जिस जगह आपकी इज्ज़त बहुत अधिक होती हो (उदहारण के लिए ससुराल) वहां एक समय सीमा से अधिक नहीं रुकना चाहिए. इससे इज्ज़त कम होती है और फ़िर उसे भी रोज़मर्रा के काम करने पड़ सकते हैं.

कुंभार री बेटी काकोसा नौ...

कुंभार री बेटी, काकोसा नौं, चढ़ बैठी किल्‍ले ऊपर, लूट लाई गौं। भावार्थ: कुंभार री – कुम्‍हार की, नौं- नाम, किल्‍ले- किला, गौं- गांव इस्‍तेमाल: छोटा आदमी बड़े ओहदे पर बैठकर बड़ों के बोल बोलने लगता है तो व्‍यंग में उसे ऐसी उक्ति कही जाती है। कहानी: कुम्‍हार की अल्‍हड़ बेटी ‘काकोसा’ एक दिन दूसरे बच्‍चों के साथ खेलते-खेलते किले में चली जाती है। सैनिक बच्‍चों का खेल देखकर उन्‍हें टोकते नहीं है। काकोसा किले की प्राचीर पर चढ़ जाती है। किले की आबोहवा का ऐसा असर होता है कि वह वहीं से दुश्‍मन को ललकारने लगती है। तो वहां खड़ा राजपुरोहित हंसते हुए यह बात कहता है।

गाडे में छाजले रो भार

भावार्थ: गाडा – ठेला, छाजले- कचरा उठाने के‍लिए लोहे की बनी छाज, भार- वजन इस्‍तेमाल: बड़े प्रयास में छोटा प्रयास और जुड़ने से काम की गति और सामर्थ्‍य पर प्रभाव नहीं पड़ता। कहानी: कचरा एकत्र करने वाला व्‍यक्ति जब कचरे से भरी गाड़ी को खींच रहा था तो उसकी पत्‍नी ने पूछा कि क्‍या वह अपना ‘छाजला’ उसके ठेले में रख दे तो व्‍यक्ति ने कहा कि ‘रख दे, प्‍यारी, गाडे में छाजले रो क्‍या भार?’