संसार में उसी व्यक्ति को पूर्ण रूप से सुखी कहा जा सकता है, जो कि शरीर से निरोगी हो. ओर निरोगी रहने के लिए यह आवश्यक है कि बच्चों को उनकी बाल्यावस्था ही से स्वस्थ रखने का ध्यान रखा जाए, उनको संयमी बनाया जाए, उनको ऎसी शिक्षा दी जाए, जिससे कि वे स्वस्थ रहने की ओर अपना विशेष ध्यान दे सकें.
माना कि समय की तेज रफ्तार के आगे आज शहरी और ग्रामीण समाज का अन्तर धीरे धीरे मिटता जा रहा है, लेकिन इतने पर भी आपको अभी भी गाँवों में बसते उस समाज की झाँकी देखने को मिल सकती है, जो कि युग परम्परा से श्रवण-ज्ञान द्वारा अपने स्वास्थय का ख्याल रखता आया है. यह ज्ञान बहुत कुछ उन्हे अपनी लोक-कहावतों में मिल जाता है.
आप देख सकते हैं कि लोक-कहावतों के ज्ञान के कारण ही आज भी अधिकाँश ग्रामीण समाज शहरी समाज की अपेक्षा कहीं अधिक स्वस्थ एवं निरोग मिलेगा.
लोक-कहावतों में प्रात:काल से लेकर रात्रि तक की विविध अनुभूतियाँ मिला करती हैं. कोई भी उनके अनुसार आचरण करके देख ले, उनकी सत्यता की गहरी छाप ह्रदय पर पडकर ही रहेगी. उदाहरणार्थ यहाँ कुछ कहावतें दी जा रही हैं-----
प्रात:काल खटिया से उठकै, पियै तुरन्तै पानी;
कबहूँ घर मा वैद न अइहै, बात घाघ कै जानि !!
आँखों में त्रिफला, दांतों में नोन,
भूखा राखै, चौथा कोन !!
अर्थात----त्रिफला, जो कि नेत्रों हेतु ज्योतिवर्द्धक एवं उनकी अन्य विभिन्न प्रकार के रोगों से बचाव हेतु रामबाण औषधी मानी जाती है. जो व्यक्ति त्रिफला के जल से आँखों का प्रक्षालन करता है, नमक से दाँत साफ करता है और सप्ताह में एक बार उपवास रखता है तो इन तीनों विधियों के अतिरिक्त उसे अन्य चौथा कार्य करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है.सिर्फ इन तीन उपायों से ही वो अपने पूरे शरीर को निरोग रख सकता है.
मोटी दतुअन जो करै,
भूनी हर्र चबाय;
दूद-बयारी जो करै,
उन घर वैद न जाय्!!
अर्थात----उपरोक्त की ही भान्ती यहाँ भी स्वास्थय रक्षार्थ तीन विधियाँ बताई गई हैं. नीम, कीकर इत्यादि कि मोटी लकडी (दातुन) को चबाकर करने से दाँत मजबूत होते हैं, भूनी हुई हर्र(हरड) के सेवन से पाचनतन्त्र मजबूत होता है और कच्चे दूध से नेत्र प्रक्षालन(नेत्रों को धोना) करने से नेत्रों की ज्योति बढती है. जो व्यक्ति इन तीन कार्यों को करता है, उसे फिर किसी चिकित्सक की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती.
प्रात:काल करै अस्नाना,
रोग-दोष एकौ नई आना !
अर्थात--जो प्रात:काल नित्य कर्म से निवृत होकर स्नान कर लेते हैं, वे सदैव निरोग रहते हैं.
खाय कै मूतै, सूतै बाउं,
काय कौं वैद बसाबै गाउं !
अर्थात---भोजन करके के पश्चात जो मूत्र-त्याग करते हैं और बायीं करवट लेकर सोते हैं, उनको यह चिन्ता नहीं रहती कि उनके गाँव में वैद्य/डाक्टर रहता है या नहीं.
वर्ष के बारह महीनों में कब कम भोजन करना हितकर है, क्या-क्या खाद्य पदार्थ किस-किस मास में वर्जित हैं, यह ज्ञान भी कहावतों में हैं. यथा----
सावन ब्यारो जब-तब कीजे,
भादौं बाकौ नाम न लीजे;
क्वारं मास के दो पखवारे
जतन-जतन से काटौ प्यारे !!
अर्थात----श्रावण मास में रात्रि का भोजन कभी-कभी ही करना चाहिए, भाद्रपद में रात्रि का भोजन करना ही नहीं चाहिए, आश्विन मास के दोनों ही पक्ष सतर्कतापूर्वक व्यतीत करने चाहिए अन्यथा अस्वस्थ हो जाने की आशंका हो ही जाती है.
क्वांर करेला, चेतै गुड,
भादौं में जो मूली खाय;
पैसा खोवै गांठ का
रोग-झकोरा खाय !
अर्थात-----अश्विन मास में जो करेला, चैत्र मास में गुड और भाद्रपद मास में मूली का सेवन करते हैं, वें गाँठ का पैसा गंवाकर उससे रोग ही अपने पास में बुलाते हैं.
कातिक-मास, दिवाली जलाय;
जै बार चाबै, तै बार खाय !
अर्थात---कार्तिक मास में दीपावली की पूजा करने के पश्चात ऎसी ऋतु आ जाती है कि भोजन का परिपाक भली प्रकार से होने लगता है, उन दिनों इच्छानुसार भोजन जितनी बार चाहें कर लिया करें.सब खाया-पिया अच्छी तरह से शरीर को लगेगा और चेहरे पर कांती रहेगी.
चैते गुड, वैसाखे तेल,
जेठे पंथ, अषाडै बेल;
साउन साग, भादौं दही,
क्वांर करेला, कातिक मही;
अगहन जीरा, पूसै धना,
माघै मिसरी, फागुन चना;
जो यह बारह देई बचाय,
ता घर वैद कभऊं नइं जाए!!
अर्थात---चैत्र मास में गुड का सेवन करना अहितकर है, क्योंकि नया गुड शरीर में कफकारक होता है और इस मास में प्रकृति के अनुसार कफ की बहुलता रहती है. वैशाख में गर्मी की प्रखरता रहती है, तेल की प्रकृति गर्म होती है इसलिए हानिकारक है. ज्येष्ठ मास में लू-लपट का दौर रहता है, अतएव यात्राएं वर्जित हैं. आषाढ मास में बेल का सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह अनुकूल नहीं पडता, पेट की अग्नि को मंद कर देता है. सावन में वायु का प्रकोप रहता है, साग वायुकारक हैं, अतएव प्रतिकूल रहता हैं. भाद्रपद में वर्षा होती रहती है और दही पित्त को कुपित करता है. आश्विन में करेला पककर पित्तकारक हो जाता है, अतएव हानिकर सिद्ध होता है.
कार्तिक मास, जो कि वर्षा और शीत ऋतु का संधिस्थल है, उसमें पित्त का कोप और कफ का संचय होता है और मही(मट्ठा) से शरीर में कफ बढता है, इसलिए त्याज्य है. अगहन(मार्गशीष) में सर्दी अधिक होती है, जीरा की तासीर भी शीतकारक है, इसलिए इससे बचना चाहिए. पौष मास में धनिया, माघ में मिसरी और फाल्गुन में चना शरीर के लिए प्रतिकूल बैठते हैं, इनको ध्यान में रखकर जो मनुष्य खान-पान में सावधानी रखते हैं, वे सदैव निरोग रहते हैं, उनको कभी डाक्टर-वैद्य की आवश्यकता नहीं पडती.
इसी के जोड का एक दूसरा छंद है, जिसमें प्रत्येक महीने में लाभ प्रदायक पदार्थों के नाम हैं. जैसे:-----
सावन हरैं, भादों चीत
कार मास, गुड खायउ मीत
कातिक मूली, अगहन तेल
पूस में करै दूध से मेल
माघ मास घिउ खींचरी खाय
फागुन उठि के प्रात नहाय
चैत मास में नीम बेसहनी
वैशाखे में खाय जडहनी!!
पं.डी.के.शर्मा "वत्स"
माना कि समय की तेज रफ्तार के आगे आज शहरी और ग्रामीण समाज का अन्तर धीरे धीरे मिटता जा रहा है, लेकिन इतने पर भी आपको अभी भी गाँवों में बसते उस समाज की झाँकी देखने को मिल सकती है, जो कि युग परम्परा से श्रवण-ज्ञान द्वारा अपने स्वास्थय का ख्याल रखता आया है. यह ज्ञान बहुत कुछ उन्हे अपनी लोक-कहावतों में मिल जाता है.
आप देख सकते हैं कि लोक-कहावतों के ज्ञान के कारण ही आज भी अधिकाँश ग्रामीण समाज शहरी समाज की अपेक्षा कहीं अधिक स्वस्थ एवं निरोग मिलेगा.
लोक-कहावतों में प्रात:काल से लेकर रात्रि तक की विविध अनुभूतियाँ मिला करती हैं. कोई भी उनके अनुसार आचरण करके देख ले, उनकी सत्यता की गहरी छाप ह्रदय पर पडकर ही रहेगी. उदाहरणार्थ यहाँ कुछ कहावतें दी जा रही हैं-----
प्रात:काल खटिया से उठकै, पियै तुरन्तै पानी;
कबहूँ घर मा वैद न अइहै, बात घाघ कै जानि !!
आँखों में त्रिफला, दांतों में नोन,
भूखा राखै, चौथा कोन !!
अर्थात----त्रिफला, जो कि नेत्रों हेतु ज्योतिवर्द्धक एवं उनकी अन्य विभिन्न प्रकार के रोगों से बचाव हेतु रामबाण औषधी मानी जाती है. जो व्यक्ति त्रिफला के जल से आँखों का प्रक्षालन करता है, नमक से दाँत साफ करता है और सप्ताह में एक बार उपवास रखता है तो इन तीनों विधियों के अतिरिक्त उसे अन्य चौथा कार्य करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है.सिर्फ इन तीन उपायों से ही वो अपने पूरे शरीर को निरोग रख सकता है.
मोटी दतुअन जो करै,
भूनी हर्र चबाय;
दूद-बयारी जो करै,
उन घर वैद न जाय्!!
अर्थात----उपरोक्त की ही भान्ती यहाँ भी स्वास्थय रक्षार्थ तीन विधियाँ बताई गई हैं. नीम, कीकर इत्यादि कि मोटी लकडी (दातुन) को चबाकर करने से दाँत मजबूत होते हैं, भूनी हुई हर्र(हरड) के सेवन से पाचनतन्त्र मजबूत होता है और कच्चे दूध से नेत्र प्रक्षालन(नेत्रों को धोना) करने से नेत्रों की ज्योति बढती है. जो व्यक्ति इन तीन कार्यों को करता है, उसे फिर किसी चिकित्सक की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती.
प्रात:काल करै अस्नाना,
रोग-दोष एकौ नई आना !
अर्थात--जो प्रात:काल नित्य कर्म से निवृत होकर स्नान कर लेते हैं, वे सदैव निरोग रहते हैं.
खाय कै मूतै, सूतै बाउं,
काय कौं वैद बसाबै गाउं !
अर्थात---भोजन करके के पश्चात जो मूत्र-त्याग करते हैं और बायीं करवट लेकर सोते हैं, उनको यह चिन्ता नहीं रहती कि उनके गाँव में वैद्य/डाक्टर रहता है या नहीं.
वर्ष के बारह महीनों में कब कम भोजन करना हितकर है, क्या-क्या खाद्य पदार्थ किस-किस मास में वर्जित हैं, यह ज्ञान भी कहावतों में हैं. यथा----
सावन ब्यारो जब-तब कीजे,
भादौं बाकौ नाम न लीजे;
क्वारं मास के दो पखवारे
जतन-जतन से काटौ प्यारे !!
अर्थात----श्रावण मास में रात्रि का भोजन कभी-कभी ही करना चाहिए, भाद्रपद में रात्रि का भोजन करना ही नहीं चाहिए, आश्विन मास के दोनों ही पक्ष सतर्कतापूर्वक व्यतीत करने चाहिए अन्यथा अस्वस्थ हो जाने की आशंका हो ही जाती है.
क्वांर करेला, चेतै गुड,
भादौं में जो मूली खाय;
पैसा खोवै गांठ का
रोग-झकोरा खाय !
अर्थात-----अश्विन मास में जो करेला, चैत्र मास में गुड और भाद्रपद मास में मूली का सेवन करते हैं, वें गाँठ का पैसा गंवाकर उससे रोग ही अपने पास में बुलाते हैं.
कातिक-मास, दिवाली जलाय;
जै बार चाबै, तै बार खाय !
अर्थात---कार्तिक मास में दीपावली की पूजा करने के पश्चात ऎसी ऋतु आ जाती है कि भोजन का परिपाक भली प्रकार से होने लगता है, उन दिनों इच्छानुसार भोजन जितनी बार चाहें कर लिया करें.सब खाया-पिया अच्छी तरह से शरीर को लगेगा और चेहरे पर कांती रहेगी.
चैते गुड, वैसाखे तेल,
जेठे पंथ, अषाडै बेल;
साउन साग, भादौं दही,
क्वांर करेला, कातिक मही;
अगहन जीरा, पूसै धना,
माघै मिसरी, फागुन चना;
जो यह बारह देई बचाय,
ता घर वैद कभऊं नइं जाए!!
अर्थात---चैत्र मास में गुड का सेवन करना अहितकर है, क्योंकि नया गुड शरीर में कफकारक होता है और इस मास में प्रकृति के अनुसार कफ की बहुलता रहती है. वैशाख में गर्मी की प्रखरता रहती है, तेल की प्रकृति गर्म होती है इसलिए हानिकारक है. ज्येष्ठ मास में लू-लपट का दौर रहता है, अतएव यात्राएं वर्जित हैं. आषाढ मास में बेल का सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह अनुकूल नहीं पडता, पेट की अग्नि को मंद कर देता है. सावन में वायु का प्रकोप रहता है, साग वायुकारक हैं, अतएव प्रतिकूल रहता हैं. भाद्रपद में वर्षा होती रहती है और दही पित्त को कुपित करता है. आश्विन में करेला पककर पित्तकारक हो जाता है, अतएव हानिकर सिद्ध होता है.
कार्तिक मास, जो कि वर्षा और शीत ऋतु का संधिस्थल है, उसमें पित्त का कोप और कफ का संचय होता है और मही(मट्ठा) से शरीर में कफ बढता है, इसलिए त्याज्य है. अगहन(मार्गशीष) में सर्दी अधिक होती है, जीरा की तासीर भी शीतकारक है, इसलिए इससे बचना चाहिए. पौष मास में धनिया, माघ में मिसरी और फाल्गुन में चना शरीर के लिए प्रतिकूल बैठते हैं, इनको ध्यान में रखकर जो मनुष्य खान-पान में सावधानी रखते हैं, वे सदैव निरोग रहते हैं, उनको कभी डाक्टर-वैद्य की आवश्यकता नहीं पडती.
इसी के जोड का एक दूसरा छंद है, जिसमें प्रत्येक महीने में लाभ प्रदायक पदार्थों के नाम हैं. जैसे:-----
सावन हरैं, भादों चीत
कार मास, गुड खायउ मीत
कातिक मूली, अगहन तेल
पूस में करै दूध से मेल
माघ मास घिउ खींचरी खाय
फागुन उठि के प्रात नहाय
चैत मास में नीम बेसहनी
वैशाखे में खाय जडहनी!!
पं.डी.के.शर्मा "वत्स"
Comments
shukriya share karne k liye..
Please visit my blog.
Lyrics Mantra
Banned Area News
naye blog lekhakon ka bhi haunsala badhayen,ek nazae mere blog par bhi dalen.
krati-fourthpillar.blogspot.com
साथ सेहत के नुस्खे भी,
so take kee baat hai agar koi mane to......
यदि आप को प्रेमचन्द की कहानियाँ पसन्द हैं तो यह ब्लॉग आप के ही लिये है |
यदि यह प्रयास अच्छा लगे तो कृपया फालोअर बनकर उत्साहवर्धन करें तथा अपनी बहुमूल्य राय से अवगत करायें |
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Pauranik Kathayenthanks for articals